वांछित मन्त्र चुनें

व्य१॒॑न्तरि॑क्षमतिर॒न्मदे॒ सोम॑स्य रोच॒ना । इन्द्रो॒ यदभि॑नद्व॒लम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vy antarikṣam atiran made somasya rocanā | indro yad abhinad valam ||

पद पाठ

वि । अ॒न्तरि॑क्षम् । अ॒ति॒र॒त् । मदे॑ । सोम॑स्य । रो॒च॒ना । इन्द्रः॑ । यत् । अभि॑नत् । व॒लम् ॥ ८.१४.७

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:14» मन्त्र:7 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:15» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:7


बार पढ़ा गया

शिव शंकर शर्मा

ईश्वर की महिमा की स्तुति दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यों ! (यद्) जब-२ (इन्द्रः) परमात्मा हमारे सर्व (बलम्) विघ्न को (अभिनत्) विदीर्ण कर देता है, तब (सोमस्य) समस्त पदार्थ का (मदे) आनन्द उदित होता है अर्थात् (अन्तरिक्षम्) सबका अन्तःकरण और सर्वाधार आकाश (रोचना) स्वच्छ और (व्यतिरत्) आनन्द से भर जाता है। ऐसे महान् देव की सेवा करो ॥७॥
भावार्थभाषाः - जब-२ परमदेव हमारे विघ्नों का निपातन करता है, तब-२ सब ही पदार्थ अपने-२ स्वरूप से प्रकाशित होने लगते हैं ॥७॥
बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) योद्धा (सोमस्य, मदे) सोमरस का आह्लाद उत्पन्न होने पर (रोचना, अन्तरिक्षम्) दिव्य अन्तरिक्ष को (व्यतिरत्) प्रकाशित करता है (यत्) जब (बलम्) शत्रुबल को (अभिनत्) भेदन करता है ॥७॥
भावार्थभाषाः - उपर्युक्त विजयप्राप्त योद्धा, जो ऐश्वर्य्य को प्राप्त है, उसको चाहिये कि वह सर्वदा उत्साहवर्धक, बलप्रद तथा आह्लादक सोमादि रसों का सेवन करके अपना शरीर पुष्ट करे, उन्मादक पदार्थों से नहीं, क्योंकि उन्मादक द्रव्य सब कार्यों के साधक ज्ञान को दबाकर उसके कार्यों को यथेष्ट सिद्ध नहीं होने देते अर्थात् मादक पदार्थों का सेवन करनेवाला योद्धा=राष्ट्रपति अपने कार्यों को विधिवत् न करने के कारण शीघ्र ही राष्ट्र से च्युत हो जाता है ॥७॥
बार पढ़ा गया

शिव शंकर शर्मा

महिम्नः स्तुतिं दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यद्=यदा। इन्द्रः=परमात्मा। अस्माकं सर्वं बलम्=विघ्नम्। अभिनत्=भिनत्ति=विदारयति। तथा। सोमस्य=निखिलपदार्थस्य। मदे=हर्षे सति। रोचना=रोचमानम्= देदीप्यमानम्। अन्तरिक्षम्=सर्वेषामन्तःकरणम्। यद्वा। सर्वाधारभूतमाकाशञ्च। व्यतिरत्=आनन्देन वर्धते। ईदृशं परमात्मानं सेवध्वमिति शिक्षते ॥७॥
बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) योद्धा (सोमस्य, मदे) सोमरसस्याह्लादे जाते (रोचना, अन्तरिक्षम्) दिव्यमन्तरिक्षम् (व्यतिरत्) प्रकाशयत् (यत्) यदा (बलम्) शत्रुबलम् (अभिनत्) विदारयति ॥७॥